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लोकरूचि-माघमेला कल्पवास दो अंतिम प्रयागराज

आचार्य गौतम ने बताया कि संगम तट पर कल्पवास का खास महत्व है। कल्पवास का जिक्र वेदों और पुराणों में भी मिलता है। कल्पवास एक बहुत ही मुश्किल साधना है क्योंकि इसमें तमाम तरह के नियंत्रण और संयम का अभ्यस्त होने की जरूरत होती है। कल्पवासी को संकल्पित क्षेत्र के बाहर न जाना, परनिन्दा त्याग, साधु सन्यासियों की सेवा, जप एवं संकीर्तन, एक समय भोजन, भूमि शयन, अग्नि सेवन न कराना कहा गया है। कल्पवास में ब्रह्मचर्य, व्रत एवं उपवास, देव पूजन, सत्संग, दान का अधिक महत्व होता है।
एक माह तक चलने वाले कल्पवास के दौरान कल्पवासी को जमीन पर सोना पड़ता है. इस दौरान श्रद्धालु फलाहार, एक समय का अल्पाहार या निराहार रहते हैं। कल्पवास करने वाले व्यक्ति को नियमपूर्वक तीन समय गंगा स्नान और यथासंभव भजन-कीर्तन, प्रभु चर्चा और प्रभु लीला का दर्शन करना चाहिए।
कल्पवास की न्यूनतम अवधि एक रात्रि की भी है। बहुत से श्रद्धालु जीवन भर माघ मास गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम को समर्पित कर देते हैं। विधान के अनुसार एक रात्रि, तीन रात्रि, तीन महीना, छह महीना, छह वर्ष, 12 वर्ष या जीवनभर कल्पवास किया जा सकता है।
प्रयागवाल महासभा के महामंत्री राजेन्द्र पालीवाल ने बताया कि प्रयागवाल ही कल्पवासियों को बसाता है। कल्पवास की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। तीर्थराज प्रयाग में संगम के निकट पौष पूर्णिमा से कल्पवास आरंभ होता है और माघी पूर्णिमा के साथ संपन्न होता है।
पौष पूर्णिमा के साथ आरंभ करने वाले श्रद्धालु एक महीने वहीं बसते हैं और भजन-ध्यान आदि करते हैं। कल्पवास मनुष्य के लिए आध्यात्मिक विकास का जरिया है। संगम पर माघ के पूरे महीने निवास कर पुण्य फल प्राप्त करने की इस साधना को कल्पवास कहा जाता है। मान्यता है कि प्रयाग में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के साथ शुरू होने वाले एक मास के कल्पवास से एक कल्प का पुण्य मिलता है।
उन्होने बताया कि कल्पवास की शुरुआत के पहले दिन तुलसी और शालिग्राम की स्थापना और पूजन करते हैं। कल्पवासी अपने शिविर के बाहर जौ का बिरवा रोपित करते हैं। कल्पवास की समाप्ति पर इस पौधे को कल्पवासी अपने साथ ले जाते है जबकि तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है।

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